Friday, 28 September 2012

वो बस में थी, मैं ऑटो में था...

वो बस में थी,
मैं ऑटो में था,
सारा समां तर्रनुम में था,

सौ गाड़ियाँ नहीं,
सौ साज़ बज रहे थे,
उनके कोमल कोमल हाथ,
बहुत तंग कर रहे थे,
 रह रहके उनके बाल,
रुखसार पे ऐसे गिर रहे थे,
मानो मुझे मेरा ईद का चाँद दिखा रहे थे,

मैं नशे में था,
मैं मज्जे में था,
मगर गुलदस्ता बेचने वाला,
बीच में आ आके किरकरी कर रहा था,

मैंने भी होश रख कर,
सारे गुलदस्ते खरीद डाले,
और कहा गुलदस्ते वाले से, दे दे,
उनको सारे जाके, 

वो मुस्कुराए,
होठों तक गुलदस्ते को लेके गए ऐसे,
लगा, गुलदस्ते में गुलाब खिल गए,

लेकिन फिर,
ऐसा चिल्लाये, हाय,
जैसे सारी गाड़ियों के होर्न,
एक साथ बज गए,

शुक्र है, मैं ऑटो में था,
वो बस में थी,
जो बस में थी,

वरना कैसे भागते,
बचते बचाते |

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