तेरी जाने की
तारीकियों में,
कि तेरी कमी
अब कम खलने
लगी है,
मशरिक से मगरिब
तक,
जो आँखें तुझे निहारा
करती थी,
तेरे सौन्दर्य को सराहा करती थी,
वो तल्खियों में तब्दील
हो गयी है,
बरतरी है ये हमारी
कि,
अमन-ऐ-आलम
की खातिर,
तू जिस्त जी रही
है,
वरना खंजर कई
दिल से निकल
निकल,
तेरे गुदाज बदन का
पता पूँछ रहे
है,
शमा जलाये रखना,
खलाओं से दूर
रहना,
उनमें हम बसे
हुए है,
तेरी खामोशियों का बंदोबस्त
कर रहें है,
तेरी जाने की
तारीकियों में,
कुछ यूँ महूब
रहते हैं,
कि तेरी
कमी अब कम
खलने लगी है,
- अमित सैनी
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