मृत पड़ी है कल से,
चंचल भ्रमण करती थी जो दीवारों पे,
सारा शरीर श्वेत पड़ा है,
ज़हर जेहन को जला रहा है,
हिम्मत करके थोड़ा हिलाता हूँ,
रह रह के मैं करीब जाता हूँ,
हलकी सी पूँछ जब हिलती है,
मेरी धड़कन दीवारों पे चढ़ जाती है,
दफनाऊ, जलाऊ, या सड़क पे युहीं फ़ेंक दूँ,
कोई रिश्तेदार आये इसी इंतज़ार में बैठा हूँ,
छत से गिरकर मौत हुयी है,
चौक कर क्या सिर्फ सुन्न हुयी है,
तहकीकात फिर बाद में फुर्सत से करूंगा,
मछर गुनेहगार हैं, या मछर मारने की दवा,
साबित ज़रूर करूँगा,
कुछ भी हो, कातिल मैं हूँ
इस शक को यकीं में तब्दील होने नहीं दूंगा |
No comments:
Post a Comment